Monday, May 28, 2012

अंतर्द्वंद और वर्चस्व के बीच भाजपा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान होने वाली बैठकों में जब कोई प्रस्ताव पारित होता था, तो समूचा देश उसे स्वीकार करता था। इन बैठकों में पारित होने वाले मुद्दे नेताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण होते थे। असहयोग आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन इत्यादि आज भी प्रसांगिक हैं, लेकिन मुंबई में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जो दृश्य सामने आए, उसने देश की राष्ट्रीय पार्टी का एक नया चेहरा ही सामने लाकर रख दिया है। संगठित और अनुशासित माने जाने वाली भाजपा में घमासान मचा हुआ है। कभी समर्पित कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में अब कार्यकर्ता कम और नेताओं की भरमार हो गई है। और इससे भी ज्यादा प्रबल हो गई है महत्वाकांक्षाएं, जो पार्टी से ज्यादा बड़ी हैं।
भाजपा में अंदरूनी कलह सबके सामने तब आई, जब झारखंड से गुमनाम शख्स अंशुमान मिश्र को राज्यसभा में भेजने की पेशकश शुरू हुई। इस पर सबसे पहला विरोध पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने किया। इसके बाद एक और वरिष्ठ यशवंत सिन्हा ने बगावत का बिगुल बजा दिया। सभी ओर से बढ़ रहे विरोध के बीच सुषमा और जेटली ने भी हाथ पीछे खींच लिए। इस पूरे ‘घर-घर की लड़ाई’ एपिसोड में क्लाइमेक्स तब और गहरा गया जब कुछ दिन बाद ही कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा ने अपने जन्मदिन पर मुख्यमंत्री पद लौटाने की धमकी देते हुए अपने 55 समर्थक विधायकों के साथ भाजपा को 48 घंटे के अंदर फैसला लेने का अल्टीमेटम थमा डाला। बीतते समय के साथ किसी तरह यह दोनों ही विवाद थमते नजर आ रहे थे, लेकिन मोदी की नाराजगी के बीच ताजा घटनाक्र म के तहत नितिन गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने के संधी फरमान ने फिर से अंदरुनी कलह को हवा दे डाली।

मुंबई कार्यकारिणी बैठक की शुरूआत से ही यह तय हो चुका था कि गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने के लिए पार्टी संविधान में संशोधन जरूरी है और इससे भी ज्यादा जरूरी है, मोदी-येद्दि जैसे जनाधार वाले क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधना, इसलिए आनन-फानन में येद्दि को शांत किया गया और मोदी की नाराजगी दूर करने के लिए संजय जोशी से इस्तीफा ले लिया गया। लेकिन ऐन मौके पर मुंबई में आयोजित रैली से आडवाणी का किनारा कर लेना चर्चा का विषय बन गया। मुंबई बैठक में जेटली और सुषमा भी खुश नहीं दिखे, बल्कि ज्यादा से ज्यादा समय उन्होंने खुद को संभाले रखा। जो पार्टी संसद में विपक्ष की भूमिका में हो, संकटग्रस्त सरकार के खिलाफ बने माहौल को भुनाने की कोशिश कर रही हो, उस पार्टी की राष्ट्रीय बैठक में सरकार के खिलाफ ऐसा एक भी प्रस्ताव पारित नहीं हो सका, जिससे विपक्ष की मौजूदगी का अंदाजा लगाया जा सके। एक अदद रैली से इस खाली हुए स्थान की भरपाई करनी चाही गई, जिसमें वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी महज पल-दो-पल की थी। वजह यहां भी अंदरुनी मनमुटाव ही था।

जब से गडकरी ने पार्टी की कुर्सी संभाली है, तब से लेकर अब तक गडकरी कोई करिश्मा नहीं कर पाएं है। गोवा और पंजाब में मिली हालिया जीत के अलावा गडकरी के निजी दायरे में ऐसा एक भी मौका नहीं, जो उनके अध्यक्षीय कार्यकाल को वजनदार बनाता हो। उलटा उत्तरांचल से सत्ता जाने की वजह भी गडकरी के उस फैसले को माना गया, जिसमें उन्होंने रमेश पोखरियाल को बदलकर बीएस खंडूरी की ताजपोशी करवा दी थी।

वहीं भाजपा में एक दौर वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी का भी था, जिनके आगे पार्टी के समस्त विरोधियों का कद छोटा पड़ जाता था या सामने ही नहीं आ पाता था। लेकिन वाजपेयी के सक्रि य राजनीति से गायब होते ही पूरा दारोमदार आडवाणी और दूसरी पंक्ति के नेताओं पर आ गया। 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की यात्र निकली तो सबके सामने एक ही लक्ष्य था कि यात्र कैसे सफल हो, क्योंकि व्यक्ति नहीं विचारधारा और दल की सर्वोपरिता का भाव जीवित था लेकिन  आडवाणी को स्वयं प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करते ही कई स्वयंभू नेता सामने आ गए। सव्रे रिपोर्ट बढ़-चढ़कर प्रकाशित कराई जाने लगीं और क्षेत्रीय क्षत्रपों को इतना महत्व दिया गया ताकि वे खुद को राष्ट्रीय स्तर का नेता समङों। नतीजा यह हुआ कि संघ की चौखट पर आडवाणी पर सर्वानुमति नहीं बनी और सुषमा, जेटली, राजनाथ सिंह, यशवंत सिन्हा जैसे दूसरी पंक्ति के नेताओं को तरजीह मिलनी लगी। इसके बाद मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री और संघ-आडवाणी की प्रिय उमा भारती ने आडवाणी को खुली चुनौती देते हुए पार्टी से हट गईं। रही-सही कसर पाक दौरे में उभरे जिन्ना विवाद ने पूरी कर दी, जिससे एनडीए के घटल दलों के अलावा भाजपा में भी नेताओं को मुंह छिपाने की जरूरत आन पड़ी। नतीजतन आडवाणी को  पार्टी अध्यक्ष पद से रु खसत होना पड़ा। मौजूदा समय में आलम यह है कि वे अब अपने वजूद को लेकर पार्टी में लगातार संघर्ष करते नजर आ रहे हैं।

यह कहना भी उचित नहीं कि आडवाणी और गडकरी के अध्यक्षीय कार्यकाल में ही विद्रोह की चिंगारी उठी। बल्कि राजनाथ सिंह के समय भी विश्वास की कमी और सर्व सहमति की कमी स्पष्ट दिखाई दी। 2009 के लोकसभा चुनाव में राजनाथ सिंह बनाम अरूण जेटली विवाद सारे अभियानों पर भारी पड़ रहा था; पार्टी में रोज नए विवाद जन्म ले रहे थे। इसका नुकसान पार्टी को सीधे तौर पर आम चुनावों में उठाना पड़ा। और तमाम प्रयासों के बाद पार्टी सत्ता वापस न पा सकी।  अब गडकरी की दोबारा ताजपोशी ने फिर वही बहस शुरू कर दी है।

देखा जाए तो गडकरी के दूसरे कार्यकाल का महत्व पहले ही कहीं ज्यादा होगा। क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। कर्नाटक में येद्दि हों या झारखंड में अजरुन मुंडा, राजस्थान में वसुंधरा हों या गुजरात में केशुभाई, भाजपा में अंदरूनी कलह की खबरें आती रहती है।

इसके अलावा पार्टी में संघ के बढ़ते दखल से भी कलह मुखर हो रहा है। संघ ने जिस तरह गडकरी की ताजपोशी कराई है, उससे पार्टी के पहली पंक्ति के नेता बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखते। वे अभी कॉडर को महत्व मिले, यही चाहते हैं। प्रधानमंत्री इन वेटिंग के लिए जिस तरह पार्टी नेताओं के अलग-अलग सुर सुनाई दे रहे हैं, वह इसी संवादहीनता और समन्वय की कमी का नतीजा है। लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली और खुद नितिन गडकरी के अलावा राजनाथ सिंह के बीच खींचतान जारी है। पार्टी के एक गुट ने इस अंतर्कलह को देखकर ही एनडीए के सहयोगी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का नाम भी आगे बढ़ा दिया था। पार्टी में इस कानाफूसी पर विराम लगाना गडकरी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।

2014 के लोकसभा चुनाव अभी दूर है लेकिन 2013 में अधिकांश राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर गडकरी को अभी से अपने तरकश में तीर भरने होंगे क्योंकि 2013 के विधानसभा चुनाव ही 2014 की सत्ता के मील के पत्थर बन सकते हैं। वहीं विधानसभा चुनावों में यदि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है, तो यह गडकरी के भविष्य के लिए ऑक्सीजन का काम करेगी। वरना जिस तरह बीते दो सालों से देश की जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि टीम अण्णा-बाबा रामदेव नहीं, भाजपा ही वास्तविक विपक्षी दल है, 2014 आते-आते राजनीतिक समीकरण बदल जाएंगे और शायद इसका जिम्मेदार नितिन गडकरी को ठहराया जाएगा। अंतर्कलह और द्वंद्व परिवारों में होते हैं, लेकिन अगर उनकी वजह से परिवार बिखरने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि दीवारों को मजबूत करने का समय फिर से आ गया है।

2 comments:

  1. तथ्यों पर आधारित विश्लेषण.....
    भाजपा को अपने अंदरूनी झगडों को छोड़ कर राजनीती में व्याप्त मौकों और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए

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