Friday, September 21, 2012

सस्ती सूती साडी और हवाई चप्पल का कारनामा....


ममत बैनर्जी किसी नाम की मोहताज नहीं है......पिछले दिनों अच्छे या बुरे हर काम को लेकर वो लोगों के बीच अच्छी खासी शोहरत बढोरती रही है.....कांग्रेस के रिटेलमें एफडीआई के फैसले के बाद सरकार से अपना समर्थन वापिस लेने वाली ममता को मी़डिया में एकमात्र मर्द तक कह डाला है....यहां यह कहना बिल्कुल ही बेज़ा नहीं होगा कि  इस समय राष्ट्रीय राजनीति में अचानक अनेक महत्वाकांक्षाएं धधकने लगी हैं.... ममता बनर्जी की इच्छा है आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पहले वो  आम आदमी का सर्वाधिक विश्वसनीय पक्षधर बनकर उभरें..ठीक वैसे ही  जैसे कि 1999 में जयललिता उभरी थीं.....
जयललिता का उस समय बढ़ा जनाधार  न  आश्चर्य था न ही ममता की यह चाल कोई  नई बात है। लेकिन रिटेल में एफडीआई की मंजूरी नें जितना आम आदमी को परेशान नहीं किया उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक दलों  को एक नया मौका मिल गया है अचानक ही देश में एक नई तरह  शत्रुता-मित्रता दिखने-मिटने को मिल रही है... जैसे ममता के हटते ही मुलायम सिंह यादव ने तीसरे मोर्चे की मानो घोषणा ही कर डाली। फिर नजाकत देख, पलट भी गए। एक ही मुद्दे पर, दूरी बनाए हुए ही सही, लेफ्ट और राइट दोनों सड़क पर नारे लगाते, भाषण देते दिखे। । सरकार के जिन फैसलों के विरुद्ध ममता ने इतना बड़ा कदम उठाया, उसी के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से इनकार कर दिया। कारण- वे भाजपा के साथ दिखना नहीं चाहतीं और माकपा के साथ दिख नहीं सकतीं।वर्ष 1993 में जब ममता कांग्रेस की युवा नेता थीं और केंद्र में खेल और युवा मामलों की उपमंत्री थीं तब उन्होंने अपनी ही पार्टी के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के ख़िलाफ़ कोलकाता की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया था.उसके फ़ौरन बाद उन्हें मंत्रिपरिषद से हटा दिया गया था.सात साल बाद वर्ष 2000 में तेल की क़ीमत में बढ़ोत्तरी के विरोध में उन्होंने तत्कालीन एनडीए सरकार मे रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. और जब एनडीए सरकार ने क़ीमत बढ़ाने के फ़ैसले को वापस लिया तो उन्होंने भी अपनी इस्तीफ़ा वापस ले लिया था.लेकिन एक साल के बाद ही रक्षा मंत्रालय में कथित घोटाले को लेकर तहलका मैगज़ीन के ख़ुलासे के बाद उन्होने एनडीए से नाता तोड़ लिया था.कुछ साल पहले सिंगूर में टाटा के नैनो कार फ़ैक्ट्री और नंदीग्राम में इंडोनेशिया की एक केमिकल फ़ैक्ट्री के लिए ज़मीन अधिग्रहण के कड़े विरोध के कारण ही पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में उन्हें इतनी बड़ी जीत हासिल हुई थी. राजनीतिक समीकरण उन्हें बंगाल में वामपंथियों से भी ज़्यादा वामपंथी दिखने के लिए मजबूर करता है और अब उन्हें लगता है कि अगर वो आर्थिक सुधार के मुद्दे पर कांग्रेस का विरोध करती हैं तो उनकी ये छवि बंगाल से बाहर भी लोगों को आकर्षित कर सकती है.

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया....सुन्दर.

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  2. ठीक वैसे ही जैसे कि 1999 में जयललिता उभरी थीं..! Ha..Ha..Ha..Ha..Ha..!

    Very Nice..!

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