टिंडर, फेसबुक और वैश्विक बंदी के दौर में 90 का वो दशक जहां प्यार और दोस्ती का मतलब महज़ किसी करिश्माई अहसास से कम नहीं का एहसास कराती नेटफिलक्स में एक बडी ही साधारण सी फिल्म है ताज महल 1989। लखनऊ की आवारा गलियों से मुहब्बत की मीठी खुशबू तक सब कुछ है इसमें। कहानी दोस्ती से होते हुए प्यार तक और फिर उसी प्यार से होते हुए दोस्ती तक पहुंचने की एक ऐसी दास्तान है जिसमें रिश्तों की झूठी और सड चुकी बुनियाद को एक नये सिरे से बांधने की कोशिश की गई। वो तमाम दुनियावी बातें सुधाकर मिश्रा और मुमताज़ के प्रेम के आगे दम तोडती नज़र आती हैं जिनके कारण अख़्तर बेग़ और सरिता का 20 साला साथ बिना सांस लिए जिए जा रहा है। पूरी फिल्म ना सिर्फ इस बात का अहसास कराती है कि प्रेम सिर्फ समर्पण चाहता है। उसके लिए दुनिया के बनाए रीति रिवाज कोई मायने नहीं रखता। तो दूसरी तरफ धरम के रूप में शहरी होने की दौड में भाग रही उस जवानी का किस्सा है जो अपने जनून के लिए सब कुछ दांव पर लगा सकती है। लेकिन कुल मिलाकर कहानी का मोल सिर्फ इतना है कि जब किसी पर इतबार आ जाए वही प्यार है ।
Thursday, March 25, 2021
Monday, May 4, 2020
दो दिलों के मिलकर रूक जाने और फिर एक-दूसरे के प्रेम में धड़क जाने की दास्तां - अंग्रेजी में कहते हैं।
यह उस हर हिस्से की कहानी है जिसने प्रेम करना चाहा, जो प्रेम करना चाहता है, मगर प्रेम कह नहीं सकता। यह उस
झरने की कहानी है जिसने अपना बहाव एक घाट के लिए रोक दिया, और यह सिर्फ कहानी नहीं है, यह वेदना है, तड़प है, रूदन है, यह दो दिलों के मिलकर रूक जाने
और फिर एक-दूसरे के प्रेम में धड़क जाने की दास्तां है। इस कहानी को उस हर हिस्से
से जोड कर देखना चाहिए, जिसके लिए खुशनुमा सुबह से लेकर बैचेन रात तक का सफ़र तय होता है.. जिसकी
जमाई बर्फ के बिना, प्याला अधूरा रह जाता है, जिसे खुश देखने के लिए निगाहें दूर तक, ठहरे हुए पानी गोते खाती है। यह कहानी उस हर आधे
हिस्से का पूरा प्यार है, जिसके बिना आपका मुक्वमल होना नामुमकिन है।
Thursday, April 9, 2020
कश्मीरियत के सौ सालों की दास्तां “रिफ्यूजी कैंप”
आशीष कौल व्हाइट शर्ट में ब्लैक टाई लगाए कोई मार्केटिंग या
पीआर एजेंसी का हिस्सा नहीं हैं, जो दावा करें कि हमने
नई किस्म की खुशबूदार बोतल या फिर कोई मौजे या टूथपेस्ट, बाजार में उतारे हैं.
उन्होंने तो बस लिखने का तरीका बदला है,
उन्होंने महज़ एक कहानी
इत्मीनान से स्टडी रूम में बैठकर नहीं लिखी. उन्होंने किसी प्रेम की दास्तां को
सेक्स और तीखेपन में नहीं परोसा है, उन्होंने अपनी कलम में वो धार दोबारा पैदा की
जो 70 और 80 के दशकों तक आते- आते कहीं खो गई थी, यह सच है कि ‘जिस दिन छूट नहीं
मिलती, हिंदी
की किताब नहीं बिकती’, ऐसे समय में आशीष कौल की ये किताब
हाथों हाथ बिकी,400 रुपये इस किताब का 20 दिन में ही तीसरा संस्करण का बाज़ार में आ जाना कोई आम बात नहीं।
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