Tuesday, August 7, 2012

राजनीति में आदिवासी चिंतन

राष्ट्रपति चुनावों में पीए संगमा की उम्मीदवारी के साथ एक बार फिर राजनीति में आदिवासी चिंतन की बात होने लगी है। नतीजे विपरीत मिलना थे, यह पहले से तय था लेकिन बावजूद इसके संगमा ने आदिवासी कार्ड खेला। ऐसा कार्ड, जो आज की राजनीति में प्रासंगिक नहीं है या यूं कहें कि सूट नहीं करता। राजनीति में आज परिवारवाद का बोलबाला है और बचे खाली स्थान को वित्त, वकालत और उद्योग जगत ने भर दिया है। ऐसे में संगमा का न सिर्फ दांव बेकार गया, आदिवासी राजनीति की मौजूदा दुर्दशा भी बयां हो गई। 
हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में एक और आदिवासी नेता अरविंद नेताम को बेइज्जत होना पड़ा। संगमा के साथ खड़े होने के चलते उन्हें कांग्रेस ने निलंबित कर दिया है। याद कीजिए, यह वही अरविंद नेताम हैं, जिनका एक समय मध्यप्रदेश में बोलबाला था। 90 के दशक में जब यह कद्दावर आदिवासी नेता लोकप्रियता की चरम पर था, तो सत्ता की चाबी ऐन मौके पर अर्जुन सिंह जैसे सांमतशाही के पैरोकारों की बदौलत दिग्विजय सिंह को सौंप दी गई। और सिंह ने नेताम की राजनीतिक हत्या को अपना उद्देश्य बना लिया। यही वजह थी कि छत्तीसगढ़ के गठन के वक्त भी नेताम को महत्व नहीं मिला। यह पहली बार नहीं हुआ था। कहते हैं इतिहास दोहराया जाता है। इन्हीं अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनते वक्त एक और आदिवासी नेता शिव भानु सोलंकी थे। कहते हैं कि उन्हीं की वजह से उस वक्त कांगे्रस सत्ता में आई थी, लेकिन राजीव गांधी ने सांमत अर्जुन सिंह को चुना। सोलंकी भी फिर उठ न सके। जमुना देवी के साथ एक अदद आदिवासी नेता भी जाता रहा। हालांकि अब उनकी विरासत संभालने का प्रयत्न जारी है। 
कुल मिलाकर  मध्यप्रदेश से लेकर केंद्र तक राजनीति में आदिवासी नेतृत्व न के बराबर ही रहा। या यूं कहें, न के बराबर ही सौंपा गया। आज भी आदिवासी सिर्फ एक वोटबैंक हैं, जिसके पास हाथ फैलाकर जाते वक्त आदिवासी परिधान पहनना समय की मांग बन जाता है, उसके साथ आदिवासी नृत्य करना अपनत्व दर्शाता है और घर के ड्राइंग रूम में आदिवासियों की कलाकृतियां लगाना कलाप्रेमी होने का प्रमाण दर्शाता है। आदिवासियों की राजनीति या राजनीति में आदिवासी पूरक न बन पाए और न सकेंगे।

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