Tuesday, September 4, 2012

भारत और चीन:बनते बिगड़ते रिश्ते

राजधानी दिल्ली में भारत और चीन के रक्षा मंत्रियों के बीच मुलाकात के बाद ये तय किया गया है कि दोनों देशों के बीच चार साल पहले बंद हुआ संयुक्त सैन्य अभ्यास फिर से शुरू होगा.चीनी रक्षा मंत्री जनरल लियांग गुआंगली ने भारत के रक्षा मंत्री एके एंटनी के साथ विस्तृत बातचीत के बाद कहा, "हम दोनों के बीच बहुत साफगोई से बातचीत हुई, उच्च स्तरीय दौरों, प्रशिक्षित सैन्य बलों का आदान-प्रदान और समुद्री इलाकों की सुरक्षा के अलावा हमने दोनों नौसेनाओं के बीच सहयोग बनाने के बारे में भी सहमति बनाई है."दोनों देश अपनी मित्रता के 55 साल भी पूरे कर चुके हैं....
वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद के अगले वर्ष, भारत ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। इस तरह भारत चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैरसमाजवादी देश बना। चीन व भारत के बीच राजनयिक संबंधों की औपचारिक स्थापना के बाद के पिछले 55 वर्षों में चीन-भारत संबंध कई सोपानों से गुजरे। उनका विकास आम तौर पर सक्रिय व स्थिर रहा, लेकिन, बीच में  स्मृतियां मीठे व कड़वी भी रहीं। इन 55 वर्षों में दोनों देशों के संबंधों में अनेक मोड़ आये। 1950 के दशक में चीन व भारत के संबंध इतिहास के सब से अच्छे काल में थे। दोनों देशों के  नेताओं ने तब एक-दूसरे के यहां की अनेक यात्राएं की। दोनों देशों के बीच तब घनिष्ठ राजनीतिक संबंध थे। लेकिन, 1960 के दशक में चीन व भारत के संबंध अपने सब से शीत काल में प्रवेश कर गये। इस के बावजूद दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध कई हजार वर्ष पुराने हैं। 70 के दशक के मध्य तक वे शीत काल से निकल कर फिर एक बार घनिष्ठ हुए। चीन-भारत संबंधों में शैथिल्य आया , तो दोनों देशों की सरकारों के उभय प्रयासों से दोनों के बीच फिर एक बार राजदूत स्तर के राजनयिक संबंधों की बहाली हुई। 1980 के दशक से 1990 के दशक के मध्य तक चीन व भारत के संबंधों में गर्माहट आ चुकी थी। हालांकि वर्ष 1998 में दोनों देशों के संबंधों में भारत द्वारा पांच मिसाइलें छोड़ने से फिर एक बार ठंडापन आया। पर यह तुरंत दोनों सरकारों की कोशिश से वर्ष 1999 में भारतीय विदेशमंत्री की चीन यात्रा के बाद समाप्त हो गया। अब चीन-भारत संबंध कदम ब कदम घनिष्ठ हो रहे हैं।वर्ष 2001 में पूर्व चीनी नेता ली फंग ने भारत की यात्रा की। वर्ष 2002 में पूर्व चीनी प्रधानमंत्री जू रोंग जी ने भारत की यात्रा की। इस के बाद, वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेई ने चीन की यात्रा की। उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ चीन-भारत संबंधों के सिद्धांत और चतुर्मुखी सहयोग के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये। इस घोषणापत्र ने जाहिर किया कि चीन व भारत के द्विपक्षीय संबंध अपेक्षाकृत परिपक्व काल में प्रवेश कर चुके हैं। इस घोषणापत्र ने अनेक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समस्याओं व क्षेत्रीय समस्याओं पर दोनों के समान रुख भी स्पष्ट किये। इसे भावी द्विपक्षीय संबंधों के विकास का निर्देशन करने वाला मील के पत्थर की हैसियत वाला दस्तावेज भी माना गया। चीन व भारत के संबंध पुरानी नींव पर और उन्नत हो रहे हैं।हालांकि इधर चीन व भारत के संबंधों में भारी सुधार हुआ है, तो भी दोनों के संबंधों में कुछ अनसुलझी समस्याएं रही हैं। चीन व भारत के बीच सब से बड़ी समस्याएं सीमा विवाद और तिब्बत की हैं। चीन सरकार हमेशा से तिब्बत की समस्या को बड़ा महत्व देती आई है। वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चीन की यात्रा की और चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया। घोषणापत्र में भारत ने औपचारिक रूप से कहा कि भारत तिब्बत को चीन का एक भाग मानता है। भारत-चीन के मध्य चार हजार किलोमीटर की सीमा आज भी विवादों की  स्थिति में है.इसके अलावा चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश में 83,743 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र पर दावा करता है.अकसाई चीन पर उसने 60 हजार वर्ग किलोमीटर पर कब्जा किया हुआ ही है.चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट का कई  गुना है.चीन का  पाकिस्तान प्रेम किसी से भी नहीं छुपा है वह लगातार भारत के खिलाफ भी पाकिस्तान की मदद  करता रहा है है चूंकि उसे अपने मुस्लिम बहुल प्रदेश सिक्याग में इस्लामी आतंकवाद नियंत्रित करने में पाकिस्तान से मदद की आशा है.....लेकिन वह इन सबके समानातर भारत के साथ व्यापारिक और अन्य गैर विवादित क्षेत्रों में संबंध बढ़ाते रहना चाहता है.इसके पीछे उसकी भावना यह है कि भारत पर सामरिक दबाव बनाए रखते हुए तात्कालिक विवाद की स्थिति से बचा जाए. चीन ,अक्साई चीन पर कब्जे के बावजूद अरुणाचल पर भी हक जताने में संकोच नहीं करता.साथ ही भारत के इर्दगिर्द सामरिक घेराबंदी भी मजबूत कर रहा है ताकि आनेवाले वर्षों में भारत चीनी दबाव में प्रतिरोध का साहस ही न जुटा सके.पिछले वर्षों  में लद्दाख और अरुणाचल सीमा पर चीन द्वारा की गई घुसपैठ की 200 से अधिक घटनाएं इसी रणनीति को दर्शाती हैं.रही बात भारत की तो भारत की राजसत्ता अपने दोनों ओर परमाणु शक्ति संपन्न शत्रु देशों से उत्पन्न खतरों का सामना करने के बजाय राजनीतिक प्रतिशोध और विदेशी दबावों में काम करने के रास्ते पर चल रही है.21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं।चीन पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषक नयन चंदा लिखते हैं, 'चीन के साथ संबंधों को सैनिक ताकत की कसौटी पर तौलना बहुत बड़ी भूल होगी। चीन से भारत को मिलने वाली असल चुनौती इन देशों की ठंडी सीमा से आने वाली चुनौती नहीं बल्कि इसके शहरों की चमक-दमक, उसके बुनियादी ढाँचे, उसके विकास करते उद्योग-धंधों, उसके अच्छे स्कूलों और उसकी उभरती स्वच्छ ऊर्जा तकनीक से मिलने वाली चुनौती है, वहीं भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी चारों तरफ व्याप्त गरीबी, कुपोषण, असमानता और अन्याय के अलावा माओवादी हिंसा से भी घिरी है, जो चीन का कतई मुकाबला नहीं कर सकती।'इस समय सबसे जायदा जरोरत है तो चीन के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति बनाने की और उस पर तमाम तरह के दबावों के बावजूद टिके रहने की......

2 comments:

  1. बस यहीं पर भारत धोखा खा जायेगा।
    चीन की किसी भी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

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