Tuesday, September 25, 2012

धार्मिक समागम या महज़ धार्मिक उन्माद

सोमवार को झारखंड में एक धार्मिक समागम में भगदड़ मचने से12 लोगों की मौत हो गई और घायल हुए कई लोग जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। ये लोग किसी स्वामी जी की जयंती मनाने जमा हुए थे। लेकिन दरवाजा संकरा होने की वजह से अफरा-तफरी मच गई। इससे एक दिन पहले मथुरा स्थित बरसाना में राधा अष्टमी के मौके पर ठीक ऐसी ही वजहों से दो लोगों की मौत हो गई और 10 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गए...इससे पहले भी कई धार्मिक समागम हुए हैं जिनमें हुई भगदड़ के चलते कई लोगों को मौत का अकाल ग्रास बनना पड़ा है....देश में कहीं ना कहीं कोई ना कोई धार्मिक समागम होता रहता है..चाहे वह पुरातन संतों के नाम पर हों या फिर निर्मल बाबा जैसे ताजातरीन कथित महात्माओं के...
आस्था और अंधविश्वास शायद एक ही सिक्के के दो पहलू है यह नितांत व्यक्तिगत मामला है किसी पर आस्था किसी के लिए अंधविश्वास भी हो सकती है....या यूं कहें कि अंधविश्वास पर लगातार लम्बे समय तक विश्वास ही शायद ‘आस्था बन जाती हो...या यह भी हो सकता है कि यह एक ‘भावना मात्र हो...लेकिन सदियों से यह चला आ रहा यह प्रश्न आज भी खड़ा है कि क्या आस्था की  परिणिति अंधविश्वास मे होती है या अंधविश्वास से आस्था बढती है ... लेकिन यह अवश्य सत्य है कि कि ‘आस्था व्यक्तिगत स्वीकार योग्य धार्मिक मान्यता है जिसे अपने जीवन में अंगीकृत करने पर किसी को ही शायद ही कभी आपत्ति हो लेकिन वही अंधविश्वास एक सामाजिक बुराई मानी जाती है। आज के वैज्ञानिक युग के बावजूद आस्था आलोचना का उतना शिकार नही है जितना अंधविश्वास। इस तरह के तमाम धार्मिक समागमों या आयोजनों में शामिल होने वाले लोगों के दिमाग में एक ही चीज पूरी तरह से हावी होती है  कि जिस संत महात्मा या सिद्ध पुरूष के समागम में वो हिस्सा ले रहे हैं उनके दर्शन कर उनके महिमा मंडन में शामिल होकर अपनी मुराद को पूरी करवाना...और इसके एवज में ऐसे समागमों में दान के अंबार लग जाते है...लेकिन मनुष्य यह भूल जाता है (गीता के अनुसार) ...जीव का कर्म के साथ अटूट संबंध है और कर्म का फल के साथ। मानव को जीवन में दुख-सुख, लाभ-हानि, शुभ-अशुभ आदि उसके कर्मानुसार ही मिलता है, न थोड़ा ज्यादा और न थोड़ा कम। कर्म और फल का सम्बन्ध कार्य-कारण-भाव के नियम पर आधारित है। यदि कारण मौजूद है तो कार्य अवश्य होगा। यही प्राकृतिक नियम आचरण के मामले मे भी सत्य है। किये गये प्रत्येक कर्म का फल कर्ता को ही भोगना होता है। इसमे किसी प्रकार की एवजी नहीं चलती। यदि कर्ता अपने द्वारा किये गये सभी कर्मो का फल भोगे बिना ही मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे पुनर्जन्म पश्चात प्रारब्ध के शेष कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। मृत्य  के पश्चात जीव केवल शरीर बदलता है। कर्ता के रूप में उसकी कभी मृत्यु नहीं होती है। जीवात्मा दुख-सुख, जीवन मरण आदि से परे होती है। जन्म-मृत्यु तो शरीर की होती है। ईश्वर की इसी व्यवस्था के अंतर्गत इस संसार में जीव का आना-जाना तब तक जारी रहता है जब तक वह अंतिम लक्ष्य मोक्ष को नहीं प्राप्त कर लेता। अन्य मत, जो पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते, उनमे भी कयामत के दिन, न्याय या डूम्स डे के दिन कर्म के आधार पर ही रूहों के बारे मे निर्णय सुनाया जाएगा। इसीलिए उनके यहाँ आखिरत के दिन को ध्यान रखकर नसीहते दी जाती हैं। यह सर्व विदित है कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन फल भोगने में नहीं। जीव के कर्मानुसार फल का निर्धारण ईश्वर, जो कि निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, अनादि, अजर, अमर, नित्य, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अंतर्यामी एवं सृष्टिकर्ता है, करता है। ऐसी महान शक्ति को धारण करने वाले परमात्मा को किसी सहायक की आवश्यकता नहीं होती है और न ही उसकी शक्तियों का कोई बंटवारा हो सकता है क्योंकि वह सर्वव्याप्य है। फिर इन तथाकथित बाबाओं, मसीहों एवं फकीरों में कौन सी ईश्वरीय शक्ति आ गई जिसे ये बांटते घूम रहें हैं। जबकि हम सब यह जानते हैं कि सभी घटनाओ के पीछे का मूल मात्र परम पिता परेमेश्वर है इसके बाद भी  लोग चमत्कार के रूप में विद्यमान असत्य विद्या के पीछे क्यों भाग रहे हैं, समझ से परे है।

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