Thursday, March 25, 2021

जिस्मानी इश्क का रूहानी अहसासः ताज महल 1989



टिंडर, फेसबुक और वैश्विक बंदी के दौर में 90 का वो दशक जहां प्यार और दोस्ती का मतलब महज़ किसी करिश्माई अहसास से कम नहीं का एहसास कराती नेटफिलक्स में एक बडी ही साधारण सी फिल्म है ताज महल 1989। लखनऊ की आवारा गलियों से मुहब्बत की मीठी खुशबू तक सब कुछ है इसमें। कहानी दोस्ती से होते हुए प्यार तक और फिर उसी प्यार से होते हुए दोस्ती तक पहुंचने की एक ऐसी दास्तान है जिसमें रिश्तों की झूठी और सड चुकी बुनियाद को एक नये सिरे से बांधने की कोशिश की गई। वो तमाम दुनियावी बातें सुधाकर मिश्रा और मुमताज़ के प्रेम के आगे दम तोडती नज़र आती हैं जिनके कारण अख़्तर बेग़ और सरिता का 20 साला साथ बिना सांस लिए जिए जा रहा है। पूरी फिल्म ना सिर्फ इस बात का अहसास कराती है कि प्रेम सिर्फ समर्पण चाहता है। उसके लिए दुनिया के बनाए रीति रिवाज कोई मायने नहीं रखता। तो दूसरी तरफ धरम के रूप में शहरी होने की दौड में भाग रही उस जवानी का किस्सा है जो अपने जनून के लिए सब कुछ दांव पर लगा सकती है। लेकिन कुल मिलाकर कहानी का मोल सिर्फ इतना है कि जब किसी पर इतबार आ जाए वही प्यार है ।

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